मंगलवार, 31 मार्च 2009

अपने अनकहे के लिए

आदमी जितना कहता है, उससे ज्यादा नहीं कहता है। अनकहा जब आपके अंदर तोड़-फोड़ मचाने लगे तो आपकी चुप्पी को भी एक रचनात्मक स्पेस की जरुरत पड़ती है, जहां वह साफ चेहरे की तरह दिखे। अपना वह चेहरा लेकर पहली बार ब्लाग पर आ रहा हूँ, बिना किसी मेकअप के।

अपने पहले पोस्ट में अपनी कविता की कुछ पंक्तियां-

मेरे पास कुछ शब्द हैं
कह दूं- तो बकवास
लिख दूं- तो इतिहास

कुछ अर्थ हैं मेरे पास
टाल दूं- तो भ्रांति
उछाल दूं- तो क्रांति

कुछ भाव हैं
पी लूं- तो कविता
जी लूं- तो कहानी
नहीं तो-आंखों का पानी।

पंकज नारायण