शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

हर चेहरा इक रिश्ते जैसा




हर दिन सड़क पर निकलते ही हजारों अजनबी चेहरों से टकराने का मौका मिलता है। किसी से कोई व्यक्तिगत रिश्ता नहीं है, फिर भी हर चेहरा इक रिश्ते जैसा लगता है। महानगर के परायेपन को न चाहकर भी भोगना पड़ता है। किसी अनजान व्यक्ति से दोस्ती ना करें, यह हिदायत दिल्ली के मेट्रो स्टेशन जैसी जगहों पर सुनने को मिलती रहती है। बशीर बद्र का शेर हर महानगर के लिए जुमला बन चुका है- ये नए मिजाज का शहर है... लेकिन मन में एक गांव है, मानता ही नहीं। मन का गांव अपने आप को कहीं भी बिछा देता है। लगा देता है कहीं भी अपनी चौपाल। चेहरों में काका, भईया, काकी, दादी, नानी सब ढूंढना चाहता है। बिना किसी को बताये सारे अजनबी चेहरों को अपनी चौपाल में शामिल कर लेता है 'मन का गाँव। ठीक उसी समय 'शहर का दिमाग' याद दिलाता है कि- बेटा, जब चेहरे कार के शीशे की तरह उतरते हैं और उनके पीछे से दूसरा चेहरा बोलता हैं तो उससे इतना आसान नहीं होता रिश्ता कायम करना। फिर भी परायपन को जीते हुए कोई गाली भी देता है तो अपना सा लगता है।
यह सब तब सोच रहा हूं, जब नए रिश्तों पर पुरानी यादें भारी पड़ रही हैं। अभी-अभी गांव याद आया, ठीक से बड़ा नहीं हुआ हूं, इसीलिए दिमाग में बचपन को लोट-पोट करने से रोक नहीं सकता और इसी बीच यह सोचने का मन हो रहा है कि वो कौन सी चीज है जो इस महानगर के अजनबी चेहरों में रिश्ते ढूंढने की बेचैनी पैदा करती है। हुआ यह था कि गांव के एक छोरे के पीछे समय हाथ धेकर पड़ गया। समय को अपने पीछे इसतरह पड़ा देख उसने भागना शुरू किया और उसकी गति तेज हो गई और आकर एक दिन शहर की रेडलाइट में फंस गया। समय भले ही साथ हो, लेकिन कुछ चेहरे जो छूटते चले गए इस तेज गति में वो इन अजनबी चेहरों में शिफ्ट होने लगे। भागने की पोजिशन लेने से पहले अपने लिए कुछ पंक्तियां लिखी थी, जो आज तक हर कदम पर मेरे साथ चल रही हैं-
जब भी/ हाथों की लकीरें/ देने लगे तुम्हें चुनौती/ मुट्ठी बांध के आगे बढ़ो/ क्योंकि/ मुट्ठी के कसने से ही/ लकीरें बदलती हैं
इन मुट्ठियों को तबसे कस रहा हूं,जबसे लकीरों को गिरफ्त में लेने का हौसला हुआ। गांव में रहते हुए जब महानगर नहीं देखा था, तब भी इससे गांव जैसा ही रिश्ता था। महानगर की किसी कार से एक बच्चा निकलकर आईस्क्रीम के लिए पैर पटक रहा था, ठीक उसी समय से अपनी किस्मत की रेखाओं पर पैर पटकना सीख गया था। अब क्यूं न हो रिश्ता अजनबी चेहरों से?
कभी-कभी कसी हुई मुट्ठी खोलकर देखता हूं तो पसीने से तर-बतर हथेलियों पर अपना ही चेहरा दिखाई नहीं देता, बल्कि उसमें हजारों-लाखों चेहरे दिखाई देते हैं, जो अपनी मुट्ठियां कस रहे हैं।
पंकज नारायण