सोमवार, 10 मई 2010

एक भटकता हुआ आत्म- चिंतन

याद नहीं पहली बार कब अपने भीतर से ढिशुम-ढ़िशुम की आवाज़ आई कि तब से लड़ाई कभी थमी नहीं। रोज सोने से पहले खुद को बटोर कर अपने मन के कूड़ेदान में डाल देता हूं और मन खोल कर बैठ जाना तो हर सुबह की चाय जैसी आदत हो गई है। लगता है मेरे हंसते-खेलते बाहर के भीतर कोई है जो समाधि में है, जब से मैं जगा हूं। या फिर कोई जगा हुआ मेरी समाधि में है जिसका मेरी दुनिया से कोई लेना- देना नहीं। सच कहता हूं तो अपने ही सामने एक बहुत बड़ा झूठ लगता हूं। झूठ बोलता हूं तो समाधि वाली दो आंखें खट से अचानक खुल जाती है। कभी शीशे में भी मैं ‘मैं’ नहीं एक भटकता हुआ आत्म- चिंतन दिखता हूं। अपने बारे में इतना सोचने वाले को क्या कहेंगे- आत्म- मुग्ध या आत्म-जयी होने के लिए सुरंग खोदने वाला एक आदमी। खैर, कुछ पंक्तियां जो कविता है भी और नहीं भी। ये पंक्तियां मैंने अपने बारे में लिखी है, न आत्म-मुग्ध होकर न आत्म-जयी होकर...

रात नींद और सपने...
रात मुझे सोने नहीं देती,
दिन मुझे जगाकर रखता है,
कुछ लोग कहते हैं
मैं नींद में जागता हुआ एक आदमी हूं।

बिना शर्त सपने देखता हूं,
हर शर्त पर उसे
पूरा करना चाहता हूं,
कुछ लोग कहते हैं,
मैं नींद में भागता हुआ एक आदमी हूं।

मेरा नींद से पुराना रिश्ता है,
नींद कभी फैल जाती है,
मेरे आकार लेते सपनों पर
सपने कभी लेट जाते हैं
मेरी नींद में
कुछ लोग कहते हैं,
मैं नींद में समाता हुआ एक सपना हूं।
-पंकज नारायण