मंगलवार, 22 सितंबर 2009

हमारे भीतर पहिये का अविष्कार

जब दोनों पांव दलदल में हों तब एक हाथ उठा कर आसमान को गुरुत्वाकर्षण का नियम याद दिलाना चाहिए। धरती में नाक तक धंसने के बाद भी हमें बचा सकता है आसमान का एक टिमटिमाता तारा, जैसे बचा लेता है पूरी तरह से हार चुके आदमी को बचपन का एक सपना। दुनिया के आखिरी आदमी तक पहुंचने की ज़िद से हमारे भीतर पहिये का अविष्कार होता है।
फेसबुक पर हर दिन नया लिखने की आदत ने अब ब्लॉग पर भी लगातार आने का बहाना दे दिया है। जारी है पिछली पंक्तियों से आगे...

पहचानो मुझे
मैं उसी मोड़ से आई हूं, जहां किसी अज़नबी ने तुम्हारा हाथ थामा था। जब भी तुम खुले आसमान और फैली ज़मीन के बीच में अपनी यादों का ढ़क्कन खोल कर सुस्ताते हो, तब धीरे-धीरे उतरती हूं तुम्हारी तहों में संगीत बन कर। कभी-कभी पाई जाती हूं तुम्हारी डायरी के पन्नों में, नींद का इंतजा़र करती लाल आंखों या तेरे ख्वाबों के आखिरी एपिसोड में। अगर जानना चाहते हो कि ज़िंदगी रिश्ते में तुम्हारी क्या लगती है तो पहचानो मुझे..

प्रेम का दृश्य

घड़ी की तीनों सुइयां तुम्हारे आने से पहले तक कितनी सुस्त होती हैं। तुम्हारे आ जाने से लेकर तुम्हारे चले जाने तक घड़ी कितनी तेज़ चलती है। इस हांफते समय में हमारा एक जगह ठहर जाना बह्मांड में घटने वाली अनोखी घटना हो जाती है। ठीक उसी समय थोड़ी देर के लिए... तीनों सुइयां रूकती हैं और आसमान देखता है धरती पर एक सूरज और एक चांद को प्यार करते हुए...

ग़लत पते पर ज़िंदगी

आओ न उलझते हैं हवाओं से। रंगीन पानी में देखते हैं अपना चेहरा। अपनी नादानियों के खजाने से निकालते हैं छोटी-छोटी खुशियां। करते हैं इस्तेमाल चुप्पियों के तालों की चाभी का और चिपकाना शुरू करते हैं मुस्कुराहट के स्टीकर तमाम चेहरों पर। चलो एक बार फिर से ग़लत पते पर ज़िंदगी को ढूंढते हैं।
तोड़ा जाए बस्ती का कानून

बस्ती के कानून से ज्य़ादा पवित्र है खिड़कियों के पर्दों का सरकना। अच्छा लगा तुम्हारा समझ जाना कि प्यार वीकेंड का इत्मिनान नहीं, हर दिन की शुरूआत और रात का चांद है। तो चलो तपते सूरज की दुनिया में चांद-चांद खेलते हैं। आओ कि खिड़की की दबी जुबां को हौसला दिया जाए... तोड़ा जाए बस्ती का कानून। आओ कि किस्सों में समा जाएं।

रोशनी की आदतों के बारे में
पता नहीं मां को किसने बता दिया कि गांव के कई चिरागों की रोशनी पी कर शहर की एक स्ट्रीट लाइट जलती है। अपनी हथेलियों में मेरे गोल चेहरे को भर कर एकटक देखती मुस्कुरा उठती थी मां। उदास पलों में इस गोल कटोरे से उड़ेल लेती थी अपनी आंखों में भर पेट रोशनी। मां को शहर के सजने से कोई दिक्कत नहीं है, उसे बस इतना डर है कि मैं किसी स्ट्रीट लाइट की दो- चार घूंटों में न बदल जाऊं। मायें जानती हैं हमारी रोशनी की आदतों के बारे में।

बेरोज़गार बैठा कबूतर

टेलिफोन के टॉवर पर म मना रहा होगा कि इस ज़माने में भी कोई प्रेम पत्र लिखे। खुले पन्नों के आसमान में वह दो प्रेमियों की उड़ान के लिए अपना पंख फैला सके। ऑनलाइन चैटिंग की तीव्रता में भी सुनी जा सके उसकी गुटर गू। कबूतर अभी भी मानते हैं कि सच्चा प्यार कबूतरों को दाना खिलाता है..

शनिवार, 19 सितंबर 2009

विदर्भ के एक ज़िंदा किसान की प्रार्थना

धरती मईया, जिन साथियों को निगल चुकी हो, उगलो उन्हें फसल बना कर ताकि उनकी विधवाएं और बच्चे भर सकें अपनी भूख से साहूकारों की तोंद। सूचना क्रांति ने हमारे आंसूओं को दिल्ली तक पहुंचा दिया लेकिन दिल्ली से हमारे लिए बह कर आ रही हरित क्रांति फाइलों तक आते-आते सूख गई। हे धरती, अपनी परतों से उगाओ थोड़ी शर्म ताकि बचाया जा सके विधवाओं के भूखे पेटों को फूलने से। अपने विधवा होने के दो साल बाद पेट का फूल जाना नहीं पचा पायी थी मुनियां की मां और अब मुनिया एकदम अकेली है। कितनी नंगी दिखती हो बंजर हो जाने के बाद और इसीलिए मुनिया के बापू ने नीले आसमान तले तुझे हरी साड़ी में देखने के लिए कर्ज लिया था। एक दिन चला गया तुम्हारी ढ़ाई गज़ की शरण में मुनिया को छोड़ कर सूद समेत चुकता होने के लिए। तुम संगमरमर की मंदिरों वाली पत्थर की देवी तो नहीं थी फिर इस महाभोग का मतलब? हमारे बिवाई फटे पांवों ने तुम्हारी मिट्टी खाकर चलने का हौसला ज़िंदा रखा है। क्यों एकदम से चुप हो गई हो हमारी आंखों की तरह ? मत देखो बादलों की तरफ, अब तो आंसू भी सूख चुके हैं वरना सींच देता उसी से। एक काम करो निकालो अपने अंदर का गड़ा हुआ पानी और फेको अपने भीतर से एक अच्छी फसल। मत सोचो कि समाज, सरकार या साहूकार कुछ सोचेंगे, अब एक तुम्हीं हो जिससे कुछ करने को कहा जा सकता है। हमारे सारे शुभ चिंतक भारत की तलाश में अमेरिका तक पहुंच गए हैं। तुम्हारी पगडंडियों से बना नक्शा तो वो कब का बहा चुके हैं सैम्पेन की बोतलों से। वो तो हमारे चेहरों की झुर्ड़ियों से भी अपने घर के लिए एक खूबसूरत पेंटिंग बनवा लेते हैं। इस अंतिम हालत में भी तुझ पर विश्वास का एक कारण है रोज तुम्हारे उपर अपना दर्द बिछाकर सो जाना। नींद नहीं आने तक देखा है कि तुम भी रात में आसमान से झगड़ती हो दो टुकड़ा बादल के लिए। चिंता तो है तुम्हें हमारी, इसलिए तो ज़हर खा-खाकर उगलती रही हो हमारे लिए सोना।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

पिन ड्रॉप साइलेंस में एक बूंद

जिद्दी मूर्तिकार ने घंटों की मेहनत के बाद दो खुबसूरत आंखें बनायी। अबोध बच्चे ने पलट कर मुस्कुराते हुए अपनी मासूम उंगलियों से इशारा किया। उड़ती हुई चिड़िया आकर कंधे पर बैठ गई और कान में कुछ कहने लगी। यह सब होता रहा और तुम कई रंगों के साथ मुझमें पेंटिंग की तरह बनती रही। मेरे पिन ड्रॉप साइलेंस में एक बूंद की तरह टपकने के लिए शुक्रिया...

इस तरह की चार-पांच लाइनों के साथ हर दिन फेस बुक पर आना। अपने दोस्तों की चार-पांच लाइनों को पढ़ना यह सब इन दिनों खूब चल रहा है। फेस बुक के कुछ मित्रों का कहना है कि ये लाइनें उन्हें सुकून देती हैं। सुकून शब्द प्रतिक्रियाओं में इतने मिले कि विश्वास ही नहीं हुआ कि अपनी बेचैनी का प्रतिबिंब टुकड़ों में बॅट कर इस तरह से सुकून भी बन सकता है। उनकी मुस्कुराती अच्छाइयों के प्रतिबिंब अपने भीतर समेटने की कोशिश में रोज इस तरह की चार लाइनें लिखना रुटीन में शामिल हो गया। ऐसा इसीलिए भी है कि कुछ दिनों से अपने भीतर एक ऐसे आदमी की तलाश में हूं जिसके आर-पार दिखाई दे सके। एक ऐसा आदमी जिसके पीछे खड़ा आदमी भी साफ-साफ दिखाई दे और जिसके आगे खड़ा आदमी भी उसको ढॅक न पाए। पिछले दिनों मोहल्ला लाइव के संपादक अविनाश जी ने फेस बुक पर ही मेल से संपर्क किया इन फेसबुकिया लाइनों को मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित करने के लिए। वहां से पंक्तियां उठा कर कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जी ने अपने मित्रों को अपनी टिप्पणी के साथ मेल किया। इस तरह से मोहल्ला लाइव पर, मेरे मेल पर और फोन पर मिली प्रतिक्रियाओं ने इन लाइनों के लिए मेरे भीतर एक सवाल दिया और उसके जवाब ने एक हौसला। मेरे सामने यह सवाल नहीं है कि ज्यादातर आत्म-केंद्रित इन पंक्तियों के बारे में आत्म-मुग्ध होकर सोचूं या आत्म-जयी होकर, कोशिश यह है कि जो भी सोचूं एक सवाल बन कर और जो भी मिले एक जवाब बन कर। मोहल्ला लाइव पर फेस बुक की जितनी पंक्तियां शामिल हुई उसके बाद लिखी गई पंक्तियों के साथ-
आंखों में थोड़ा सा पानी
रेगिस्तान का तपता संघर्ष उन्हें आंख नहीं दिखा सकता। उनकी नमी हमेशा बरकरार रहती है। असफलता की तेज़ धूप भी जब उन्हें सेकती है तो उनमें हरी-भरी फसल उगती है। वो ठंढे दिमाग से हौसलों को गरम करते हैं। बात उनलोगों की हो रही है जो पानी का सही इस्तेमाल जानते हैं और हर परिस्थिति में अपनी आंखों में थोड़ा सा पानी बचा कर रखते हैं...
झूठ का होना
जोर से बोलना और आवाज़ में ताकत होना दोनों दो बात है। ऐसा भी होता है जब किसी का छींकना भी राष्ट्रीय छीक बन जाता है। एक-दूसरे के गरम बयानों से निकल कर वो इतिहास बोलेंगे और हम यह मानकर सुनेंगे कि जिस तरह सच का होना सच है उसी तरह झूठ का होना भी सच हैं। बच्चे किताबों में गांधी को गांधी, अंबेडकर को अंबेडकर और जिन्ना को जिन्ना पढ़ने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करेंगे और बात करने की कोशिश करेंगे अपनी धीमी आवाज़ में...
ईश्वर क्यों
तुम्हारी एक आवाज़ से कई रास्ते निकलते हैं। एक रास्ते से कई लोग निकलते हैं। एक आदमी से कई दुनिया निकलती है। हे उस एक दुनिया के ईश्वर, तुम ख़ामोश क्यों हो...और जब खामोश हो तो ईश्वर क्यों हो...
उस मोड़ से शुरू करें...
कैद थी लड़की... जैसे कैद होती है गुब्बारे में हवा... गुब्बारा फट गया... लड़की हवा हो गई। हवा होने या अखबारों में नाम बदल कर आने से पहले और बाद की लड़कियों को एक फर्क के साथ जीना पड़ता है। आईए इस फर्क पर एक-एक मुट्ठी मिट्टी डाल दी जाए। ज़िंदगी वहीं से शुरू हो जहां से सुबह होती है...
मेरे कुछ सामान हैं तुम्हारे पास
तुम्हारी आंखों में मेरी जुबां, तुम्हारी धड़कनों पर मेरी उंगलियों के निशान, तुम्हारे ख्वाबों में मेरी मौजुदगी... ये कुछ सामान हैं मेरे, जो तुम्हारे पास पड़े हैं। हो सके तो लौटा दो... और हां तुमने मेरी किताब में जो मयूर- पंख छुपा रखे थे, वो कहीं खो गए हैं। देखो, हम बड़े हो गए और यह दुनिया छोटी है। धुल- मिट्टी लगे चेहरों को देखकर इसे प्यार नहीं आता। चेहरे पर एक अच्छा मेकअप पोत लो... मेरा सामान वापस करो और मुझे भूल जाओ..
शिक्षक दिवस पर
ज़िंदगी किताबों से पहले ज़िंदगी में ही आती हैं। शिक्षक दिवस पर उन सभी परिस्थितियों को मेरा प्रणाम जिन्होंने मुझे मेरा होना सिखाया। उन सभी शिक्षकों को प्रणाम जिन्होंने मुझे नहीं पढ़ाया और मैं अपने अनपढ़ होने का इस्तेमाल पढ़े- लिखे की तरह करना सीख गया।... अच्छा लगा किताबों से पहले ज़िंदगी में आना... वाह ज़िंदगी।
सिक्का उछलते ही
क्या बात है कि तुम्हारे हिस्से का सारा कानून हम पर लागू होता है... हम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं फिर भी सिक्का उछलते ही चित भी तुम्हारी और पट भी तुम्हारी कैसे हो जाती है... बताओ न दोस्त क्या अंतर है तुम्हारे होने और हमारे खोने में ...
ज़मीनी दोस्ती
दोस्त मैं भी चाहता हूं कि तुम सागर जितने उंचे और पर्वत जितने गहरे बनो ताकि तल में उतर कर तुम्हारी उंचाई और शिखर पर चढ़ कर तुम्हारी गहराई नाप सकूं... लेकिन इन दोनों के बीच में जो समतल ज़मीन है हमें उसी पर साथ-साथ चलना होगा... क्योंकि दोस्ती मैंने तुमसे की है, सागर या पर्वत से नहीं...ज़मीन पर हम दोनों बराबर हैं, दोस्त हैं...
जीत-हार
कुछ लोग करते हैं...कुछ लोग देखते हैं। कुछ होते हुए देखने वाले लोग कुछ करने वालों की तुलना में अपने आप को अधिक होशियार समझते हैं। एक दिन उन्हें पता चलता है कि जो मुस्कुराहट कुछ करने वालों के चेहरे पर है वो इन्हीं लोगों की मुट्ठी से फिसले समय ने लिखी है... एक वक्त तो ऐसा आता ही है जब खुद पर हंसने के लिए भी होठ नहीं खुल पाते...
ढ़ाई आखर...
अपनी धड़कनों पर मेरी उंगलियों के निशान देख कर तुम्हें समझ जाना चाहिए कि कैसे मैंने 1 से 100 तक की गिनती कैसे सीख ली होगी। तुम्हारी आंखों की प्रयोगशाला में शिफ्ट होते ही कयामत सी कांपती तुम्हारी जुबां की लड़ख़ड़ाहट ने मुझे ककहड़ा सिखाया। अब कितने सबूत... चाहिए तुम्हें अपने मनोहर पोथी होने के उलटने दो बारी-बारी से पन्नें कि पढ़ा जा सके ढ़ाई आखर...

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

आंखों की साफ आवाज़ें

पिछले दिनों मैंने फेस बुक पर कुछ पंक्तियां लिखी थी। बहुत दिनों बाद उन्ही पंक्तियों के सहारे नई शुरुआत कर रहा हूं, इस वादे के साथ कि अब बराबर कुछ न कुछ लिखूंगा। अपनी ही तलाश में भटकते हुए कुछ ढूंढ के लाया हूं-

आज कुछ कहने का मन नहीं हो रहा। ऐसा जब-जब होता है तो लगता है अपनी ही ऊंचाइयों से फिसल कर धड़ाम से नीचे आ गया और अपने लिए धरती ढूढ़ रहा हूं। आसान नहीं होता अपनी खामोशियों की ऊंची दीवारों में कैद हो जाना। कुछ बोलूं न बोलूं आंखों से साफ आवाज़ निकलती है। कुछ आवाज़ों के साथ-

मेरा अनलिमिटेड स्टॉक
कुछ लोगों ने मुसे नफरत देने की कोशिश की। उन्हे 30 प्रतिशत अतिरिक्त प्यार मिला। कुछ लोगों ने मुझे प्यार दिया। उन्हे 100 प्रतिशत अतिरिक्त प्यार मिला। नफरत करने वालों ने अपनी चीज वापस मांगी। कहां से देता मैं.. मेरे स्टॉक में तो सिर्फ प्यार भरा है। इस तरह मेरा स्वभाव मेरी समझदारी से हमेशा जीतता रहा। एक ही एक्सचेंज आफर है मेरे पास- प्यार के बदले प्यार..नफरत के बदले भी प्यार। सौदा मंजूर है तो ठीक वरना दूसरी दूकान देखो...
मेरी प्रार्थनाएं-
आंखें जब साफ आवाज़ में बात करती है तब आदमी कितना मासूम दिखता है। कुछ आंखों की साफ आवाज़ों से मैंने अपनी दोनों मुट्ठियां भरी। पहली खोली तो एक चेहरा निकला। दूसरी खोली तो रौनक। दोनों हथलियों को मिला कर, इसे प्रार्थना का नाम दिया... और प्रार्थनाओ ने मुझे रौनक भरे चेहरों से सजी इक मासूम दुनिया दी, इसीलिए ज्यादा समझदार नहीं होना चाहता... ज्यादा समझदारी मासूमियत को निगल जाती है...
ताजमहल देख कर लौटने के बाद-
मुहब्बत की जुबां सदियों तक बात करती है...पिछली सदी की खुबसूरत याद को दोनों हथेली पर रख कर अपनी आंखों में नूर भर लेने की ख्वाहिश बचपन से थी, इसीलिए पिछले रविवार ताजमहल देखने गया। सोचा था शाहजहां के इतिहास से थोड़ी रौनक अपनी आंखों के लिए चुरा लूंगा...लेकिन सुंदर नक्काशियों से निकले अजनबी हाथों ने मुझे चोरी करते पकड़ लिया। कहने लगे यह हमारी मुहब्बत है, किसी बादशाह की शान नहीं कि सदियां बदलते ही तुम लपक लोगे..
कंधों का इस्तेमाल
कुछ लोग कंधों का इस्तेमाल सीढियों की तरह करते हैं, यह जानते हुए कि कंधों पर हाथ रखा जाना चाहिए, पैर नहीं। एक दिन वही मजबूत कंधा जब झुक जाता है तो उंचाईयों से लुढ़कना समझ में आता है। दावे से कह सकता हूं दावे से कह सकता हूं कि कंधे जब अवसरवाद की भेंट चढ़ते हैं तो सीढियां बन जाते है और जब उमर भर एक- दूसरे का साथ देते हैं तो एक और एक ग्यारह होता है। आपको मज़ा आएगा, किसी झुके हुए कंधे पर हाथ रखकर यह गणित समझने की कोशिश करते हुए..
लोहा गायब... केवल धार
कुछ लोगों ने अपनी धार तेज करना शुरु किया। इतनी धार लगाई कि बस धार ही रह गई, लोहा खत्म हो...अब अपनी केवल धार लेकर एक-दूसरे से ही लोहा ले रहे हैं...
अपने एक खास दोस्त के लिए
यह आवाज जो तुम्हे साफ-साफ सुनाई दे रही है, इसे तुम्हारे शोर पर अपनी खामोशियों को रगड़-रगड़कर मैंने पैदा किया है। अब मैं इसे पाल-पोसकर बड़ा करना चाहता हूँ...क्या तुम मेरा साथ दोगे...शायद नहीं क्योंकि इसी शोर ने तुम्हे पैदा किया है...लेकिन याद रखना दोस्त खामोशी भी कभी- कभी शोर को निगल जाती है...जिंदगी कम से कम चूकने का मौका सबको देती है..
मदर्स डे पर
अपने होने के आगे फुल स्टॉप, कॉमा या प्रश्नवाचक चिन्ह लगाने से पहले तुम्हारी याद आती है मां... सोचता हूं कि मेरा होना तुम्हारी आंखों के किस सपने की हकीकत है...9 महीने में सोचा गया कौन सा वाक्य हूं मैं... मां कभी मेरी कविता में आओ...शायद वही भूल आई हो अपना आंचल, जिससे अकसर लिपटा रहता हूं...सच कहूं आज मदर्स डे नहीं भी होता तो तुम्हारी बहुत याद आती..
और अंत में
मुझे तलाश है उन शब्दों की जो दिमाग में एक नई सुबह खोल दे और दिल को एक खुबसूरत शाम दे, जिससे मैं अकेले में बात कर सकूं...एक गहरा कुआं खोदने की ताकत रखने वाले शब्दों की खोज में हूं क्योंकि बोर हो गया हूं सूखती हुई आंखों और सख्त हो चुके दिलों से..

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

हर चेहरा इक रिश्ते जैसा




हर दिन सड़क पर निकलते ही हजारों अजनबी चेहरों से टकराने का मौका मिलता है। किसी से कोई व्यक्तिगत रिश्ता नहीं है, फिर भी हर चेहरा इक रिश्ते जैसा लगता है। महानगर के परायेपन को न चाहकर भी भोगना पड़ता है। किसी अनजान व्यक्ति से दोस्ती ना करें, यह हिदायत दिल्ली के मेट्रो स्टेशन जैसी जगहों पर सुनने को मिलती रहती है। बशीर बद्र का शेर हर महानगर के लिए जुमला बन चुका है- ये नए मिजाज का शहर है... लेकिन मन में एक गांव है, मानता ही नहीं। मन का गांव अपने आप को कहीं भी बिछा देता है। लगा देता है कहीं भी अपनी चौपाल। चेहरों में काका, भईया, काकी, दादी, नानी सब ढूंढना चाहता है। बिना किसी को बताये सारे अजनबी चेहरों को अपनी चौपाल में शामिल कर लेता है 'मन का गाँव। ठीक उसी समय 'शहर का दिमाग' याद दिलाता है कि- बेटा, जब चेहरे कार के शीशे की तरह उतरते हैं और उनके पीछे से दूसरा चेहरा बोलता हैं तो उससे इतना आसान नहीं होता रिश्ता कायम करना। फिर भी परायपन को जीते हुए कोई गाली भी देता है तो अपना सा लगता है।
यह सब तब सोच रहा हूं, जब नए रिश्तों पर पुरानी यादें भारी पड़ रही हैं। अभी-अभी गांव याद आया, ठीक से बड़ा नहीं हुआ हूं, इसीलिए दिमाग में बचपन को लोट-पोट करने से रोक नहीं सकता और इसी बीच यह सोचने का मन हो रहा है कि वो कौन सी चीज है जो इस महानगर के अजनबी चेहरों में रिश्ते ढूंढने की बेचैनी पैदा करती है। हुआ यह था कि गांव के एक छोरे के पीछे समय हाथ धेकर पड़ गया। समय को अपने पीछे इसतरह पड़ा देख उसने भागना शुरू किया और उसकी गति तेज हो गई और आकर एक दिन शहर की रेडलाइट में फंस गया। समय भले ही साथ हो, लेकिन कुछ चेहरे जो छूटते चले गए इस तेज गति में वो इन अजनबी चेहरों में शिफ्ट होने लगे। भागने की पोजिशन लेने से पहले अपने लिए कुछ पंक्तियां लिखी थी, जो आज तक हर कदम पर मेरे साथ चल रही हैं-
जब भी/ हाथों की लकीरें/ देने लगे तुम्हें चुनौती/ मुट्ठी बांध के आगे बढ़ो/ क्योंकि/ मुट्ठी के कसने से ही/ लकीरें बदलती हैं
इन मुट्ठियों को तबसे कस रहा हूं,जबसे लकीरों को गिरफ्त में लेने का हौसला हुआ। गांव में रहते हुए जब महानगर नहीं देखा था, तब भी इससे गांव जैसा ही रिश्ता था। महानगर की किसी कार से एक बच्चा निकलकर आईस्क्रीम के लिए पैर पटक रहा था, ठीक उसी समय से अपनी किस्मत की रेखाओं पर पैर पटकना सीख गया था। अब क्यूं न हो रिश्ता अजनबी चेहरों से?
कभी-कभी कसी हुई मुट्ठी खोलकर देखता हूं तो पसीने से तर-बतर हथेलियों पर अपना ही चेहरा दिखाई नहीं देता, बल्कि उसमें हजारों-लाखों चेहरे दिखाई देते हैं, जो अपनी मुट्ठियां कस रहे हैं।
पंकज नारायण



मंगलवार, 31 मार्च 2009

अपने अनकहे के लिए

आदमी जितना कहता है, उससे ज्यादा नहीं कहता है। अनकहा जब आपके अंदर तोड़-फोड़ मचाने लगे तो आपकी चुप्पी को भी एक रचनात्मक स्पेस की जरुरत पड़ती है, जहां वह साफ चेहरे की तरह दिखे। अपना वह चेहरा लेकर पहली बार ब्लाग पर आ रहा हूँ, बिना किसी मेकअप के।

अपने पहले पोस्ट में अपनी कविता की कुछ पंक्तियां-

मेरे पास कुछ शब्द हैं
कह दूं- तो बकवास
लिख दूं- तो इतिहास

कुछ अर्थ हैं मेरे पास
टाल दूं- तो भ्रांति
उछाल दूं- तो क्रांति

कुछ भाव हैं
पी लूं- तो कविता
जी लूं- तो कहानी
नहीं तो-आंखों का पानी।

पंकज नारायण