जब दोनों पांव दलदल में हों तब एक हाथ उठा कर आसमान को गुरुत्वाकर्षण का नियम याद दिलाना चाहिए। धरती में नाक तक धंसने के बाद भी हमें बचा सकता है आसमान का एक टिमटिमाता तारा, जैसे बचा लेता है पूरी तरह से हार चुके आदमी को बचपन का एक सपना। दुनिया के आखिरी आदमी तक पहुंचने की ज़िद से हमारे भीतर पहिये का अविष्कार होता है।
फेसबुक पर हर दिन नया लिखने की आदत ने अब ब्लॉग पर भी लगातार आने का बहाना दे दिया है। जारी है पिछली पंक्तियों से आगे...
पहचानो मुझे
मैं उसी मोड़ से आई हूं, जहां किसी अज़नबी ने तुम्हारा हाथ थामा था। जब भी तुम खुले आसमान और फैली ज़मीन के बीच में अपनी यादों का ढ़क्कन खोल कर सुस्ताते हो, तब धीरे-धीरे उतरती हूं तुम्हारी तहों में संगीत बन कर। कभी-कभी पाई जाती हूं तुम्हारी डायरी के पन्नों में, नींद का इंतजा़र करती लाल आंखों या तेरे ख्वाबों के आखिरी एपिसोड में। अगर जानना चाहते हो कि ज़िंदगी रिश्ते में तुम्हारी क्या लगती है तो पहचानो मुझे..
प्रेम का दृश्य
घड़ी की तीनों सुइयां तुम्हारे आने से पहले तक कितनी सुस्त होती हैं। तुम्हारे आ जाने से लेकर तुम्हारे चले जाने तक घड़ी कितनी तेज़ चलती है। इस हांफते समय में हमारा एक जगह ठहर जाना बह्मांड में घटने वाली अनोखी घटना हो जाती है। ठीक उसी समय थोड़ी देर के लिए... तीनों सुइयां रूकती हैं और आसमान देखता है धरती पर एक सूरज और एक चांद को प्यार करते हुए...
ग़लत पते पर ज़िंदगी
आओ न उलझते हैं हवाओं से। रंगीन पानी में देखते हैं अपना चेहरा। अपनी नादानियों के खजाने से निकालते हैं छोटी-छोटी खुशियां। करते हैं इस्तेमाल चुप्पियों के तालों की चाभी का और चिपकाना शुरू करते हैं मुस्कुराहट के स्टीकर तमाम चेहरों पर। चलो एक बार फिर से ग़लत पते पर ज़िंदगी को ढूंढते हैं।
तोड़ा जाए बस्ती का कानून
बस्ती के कानून से ज्य़ादा पवित्र है खिड़कियों के पर्दों का सरकना। अच्छा लगा तुम्हारा समझ जाना कि प्यार वीकेंड का इत्मिनान नहीं, हर दिन की शुरूआत और रात का चांद है। तो चलो तपते सूरज की दुनिया में चांद-चांद खेलते हैं। आओ कि खिड़की की दबी जुबां को हौसला दिया जाए... तोड़ा जाए बस्ती का कानून। आओ कि किस्सों में समा जाएं।
रोशनी की आदतों के बारे में
पता नहीं मां को किसने बता दिया कि गांव के कई चिरागों की रोशनी पी कर शहर की एक स्ट्रीट लाइट जलती है। अपनी हथेलियों में मेरे गोल चेहरे को भर कर एकटक देखती मुस्कुरा उठती थी मां। उदास पलों में इस गोल कटोरे से उड़ेल लेती थी अपनी आंखों में भर पेट रोशनी। मां को शहर के सजने से कोई दिक्कत नहीं है, उसे बस इतना डर है कि मैं किसी स्ट्रीट लाइट की दो- चार घूंटों में न बदल जाऊं। मायें जानती हैं हमारी रोशनी की आदतों के बारे में।
बेरोज़गार बैठा कबूतर
टेलिफोन के टॉवर पर म मना रहा होगा कि इस ज़माने में भी कोई प्रेम पत्र लिखे। खुले पन्नों के आसमान में वह दो प्रेमियों की उड़ान के लिए अपना पंख फैला सके। ऑनलाइन चैटिंग की तीव्रता में भी सुनी जा सके उसकी गुटर गू। कबूतर अभी भी मानते हैं कि सच्चा प्यार कबूतरों को दाना खिलाता है..