शनिवार, 19 सितंबर 2009

विदर्भ के एक ज़िंदा किसान की प्रार्थना

धरती मईया, जिन साथियों को निगल चुकी हो, उगलो उन्हें फसल बना कर ताकि उनकी विधवाएं और बच्चे भर सकें अपनी भूख से साहूकारों की तोंद। सूचना क्रांति ने हमारे आंसूओं को दिल्ली तक पहुंचा दिया लेकिन दिल्ली से हमारे लिए बह कर आ रही हरित क्रांति फाइलों तक आते-आते सूख गई। हे धरती, अपनी परतों से उगाओ थोड़ी शर्म ताकि बचाया जा सके विधवाओं के भूखे पेटों को फूलने से। अपने विधवा होने के दो साल बाद पेट का फूल जाना नहीं पचा पायी थी मुनियां की मां और अब मुनिया एकदम अकेली है। कितनी नंगी दिखती हो बंजर हो जाने के बाद और इसीलिए मुनिया के बापू ने नीले आसमान तले तुझे हरी साड़ी में देखने के लिए कर्ज लिया था। एक दिन चला गया तुम्हारी ढ़ाई गज़ की शरण में मुनिया को छोड़ कर सूद समेत चुकता होने के लिए। तुम संगमरमर की मंदिरों वाली पत्थर की देवी तो नहीं थी फिर इस महाभोग का मतलब? हमारे बिवाई फटे पांवों ने तुम्हारी मिट्टी खाकर चलने का हौसला ज़िंदा रखा है। क्यों एकदम से चुप हो गई हो हमारी आंखों की तरह ? मत देखो बादलों की तरफ, अब तो आंसू भी सूख चुके हैं वरना सींच देता उसी से। एक काम करो निकालो अपने अंदर का गड़ा हुआ पानी और फेको अपने भीतर से एक अच्छी फसल। मत सोचो कि समाज, सरकार या साहूकार कुछ सोचेंगे, अब एक तुम्हीं हो जिससे कुछ करने को कहा जा सकता है। हमारे सारे शुभ चिंतक भारत की तलाश में अमेरिका तक पहुंच गए हैं। तुम्हारी पगडंडियों से बना नक्शा तो वो कब का बहा चुके हैं सैम्पेन की बोतलों से। वो तो हमारे चेहरों की झुर्ड़ियों से भी अपने घर के लिए एक खूबसूरत पेंटिंग बनवा लेते हैं। इस अंतिम हालत में भी तुझ पर विश्वास का एक कारण है रोज तुम्हारे उपर अपना दर्द बिछाकर सो जाना। नींद नहीं आने तक देखा है कि तुम भी रात में आसमान से झगड़ती हो दो टुकड़ा बादल के लिए। चिंता तो है तुम्हें हमारी, इसलिए तो ज़हर खा-खाकर उगलती रही हो हमारे लिए सोना।

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

खूब लिखें. बस यूं ही लिख्ते रहें. आप के लेखन मे प्रदूषण नही है.