सोमवार, 14 सितंबर 2009

पिन ड्रॉप साइलेंस में एक बूंद

जिद्दी मूर्तिकार ने घंटों की मेहनत के बाद दो खुबसूरत आंखें बनायी। अबोध बच्चे ने पलट कर मुस्कुराते हुए अपनी मासूम उंगलियों से इशारा किया। उड़ती हुई चिड़िया आकर कंधे पर बैठ गई और कान में कुछ कहने लगी। यह सब होता रहा और तुम कई रंगों के साथ मुझमें पेंटिंग की तरह बनती रही। मेरे पिन ड्रॉप साइलेंस में एक बूंद की तरह टपकने के लिए शुक्रिया...

इस तरह की चार-पांच लाइनों के साथ हर दिन फेस बुक पर आना। अपने दोस्तों की चार-पांच लाइनों को पढ़ना यह सब इन दिनों खूब चल रहा है। फेस बुक के कुछ मित्रों का कहना है कि ये लाइनें उन्हें सुकून देती हैं। सुकून शब्द प्रतिक्रियाओं में इतने मिले कि विश्वास ही नहीं हुआ कि अपनी बेचैनी का प्रतिबिंब टुकड़ों में बॅट कर इस तरह से सुकून भी बन सकता है। उनकी मुस्कुराती अच्छाइयों के प्रतिबिंब अपने भीतर समेटने की कोशिश में रोज इस तरह की चार लाइनें लिखना रुटीन में शामिल हो गया। ऐसा इसीलिए भी है कि कुछ दिनों से अपने भीतर एक ऐसे आदमी की तलाश में हूं जिसके आर-पार दिखाई दे सके। एक ऐसा आदमी जिसके पीछे खड़ा आदमी भी साफ-साफ दिखाई दे और जिसके आगे खड़ा आदमी भी उसको ढॅक न पाए। पिछले दिनों मोहल्ला लाइव के संपादक अविनाश जी ने फेस बुक पर ही मेल से संपर्क किया इन फेसबुकिया लाइनों को मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित करने के लिए। वहां से पंक्तियां उठा कर कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जी ने अपने मित्रों को अपनी टिप्पणी के साथ मेल किया। इस तरह से मोहल्ला लाइव पर, मेरे मेल पर और फोन पर मिली प्रतिक्रियाओं ने इन लाइनों के लिए मेरे भीतर एक सवाल दिया और उसके जवाब ने एक हौसला। मेरे सामने यह सवाल नहीं है कि ज्यादातर आत्म-केंद्रित इन पंक्तियों के बारे में आत्म-मुग्ध होकर सोचूं या आत्म-जयी होकर, कोशिश यह है कि जो भी सोचूं एक सवाल बन कर और जो भी मिले एक जवाब बन कर। मोहल्ला लाइव पर फेस बुक की जितनी पंक्तियां शामिल हुई उसके बाद लिखी गई पंक्तियों के साथ-
आंखों में थोड़ा सा पानी
रेगिस्तान का तपता संघर्ष उन्हें आंख नहीं दिखा सकता। उनकी नमी हमेशा बरकरार रहती है। असफलता की तेज़ धूप भी जब उन्हें सेकती है तो उनमें हरी-भरी फसल उगती है। वो ठंढे दिमाग से हौसलों को गरम करते हैं। बात उनलोगों की हो रही है जो पानी का सही इस्तेमाल जानते हैं और हर परिस्थिति में अपनी आंखों में थोड़ा सा पानी बचा कर रखते हैं...
झूठ का होना
जोर से बोलना और आवाज़ में ताकत होना दोनों दो बात है। ऐसा भी होता है जब किसी का छींकना भी राष्ट्रीय छीक बन जाता है। एक-दूसरे के गरम बयानों से निकल कर वो इतिहास बोलेंगे और हम यह मानकर सुनेंगे कि जिस तरह सच का होना सच है उसी तरह झूठ का होना भी सच हैं। बच्चे किताबों में गांधी को गांधी, अंबेडकर को अंबेडकर और जिन्ना को जिन्ना पढ़ने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करेंगे और बात करने की कोशिश करेंगे अपनी धीमी आवाज़ में...
ईश्वर क्यों
तुम्हारी एक आवाज़ से कई रास्ते निकलते हैं। एक रास्ते से कई लोग निकलते हैं। एक आदमी से कई दुनिया निकलती है। हे उस एक दुनिया के ईश्वर, तुम ख़ामोश क्यों हो...और जब खामोश हो तो ईश्वर क्यों हो...
उस मोड़ से शुरू करें...
कैद थी लड़की... जैसे कैद होती है गुब्बारे में हवा... गुब्बारा फट गया... लड़की हवा हो गई। हवा होने या अखबारों में नाम बदल कर आने से पहले और बाद की लड़कियों को एक फर्क के साथ जीना पड़ता है। आईए इस फर्क पर एक-एक मुट्ठी मिट्टी डाल दी जाए। ज़िंदगी वहीं से शुरू हो जहां से सुबह होती है...
मेरे कुछ सामान हैं तुम्हारे पास
तुम्हारी आंखों में मेरी जुबां, तुम्हारी धड़कनों पर मेरी उंगलियों के निशान, तुम्हारे ख्वाबों में मेरी मौजुदगी... ये कुछ सामान हैं मेरे, जो तुम्हारे पास पड़े हैं। हो सके तो लौटा दो... और हां तुमने मेरी किताब में जो मयूर- पंख छुपा रखे थे, वो कहीं खो गए हैं। देखो, हम बड़े हो गए और यह दुनिया छोटी है। धुल- मिट्टी लगे चेहरों को देखकर इसे प्यार नहीं आता। चेहरे पर एक अच्छा मेकअप पोत लो... मेरा सामान वापस करो और मुझे भूल जाओ..
शिक्षक दिवस पर
ज़िंदगी किताबों से पहले ज़िंदगी में ही आती हैं। शिक्षक दिवस पर उन सभी परिस्थितियों को मेरा प्रणाम जिन्होंने मुझे मेरा होना सिखाया। उन सभी शिक्षकों को प्रणाम जिन्होंने मुझे नहीं पढ़ाया और मैं अपने अनपढ़ होने का इस्तेमाल पढ़े- लिखे की तरह करना सीख गया।... अच्छा लगा किताबों से पहले ज़िंदगी में आना... वाह ज़िंदगी।
सिक्का उछलते ही
क्या बात है कि तुम्हारे हिस्से का सारा कानून हम पर लागू होता है... हम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं फिर भी सिक्का उछलते ही चित भी तुम्हारी और पट भी तुम्हारी कैसे हो जाती है... बताओ न दोस्त क्या अंतर है तुम्हारे होने और हमारे खोने में ...
ज़मीनी दोस्ती
दोस्त मैं भी चाहता हूं कि तुम सागर जितने उंचे और पर्वत जितने गहरे बनो ताकि तल में उतर कर तुम्हारी उंचाई और शिखर पर चढ़ कर तुम्हारी गहराई नाप सकूं... लेकिन इन दोनों के बीच में जो समतल ज़मीन है हमें उसी पर साथ-साथ चलना होगा... क्योंकि दोस्ती मैंने तुमसे की है, सागर या पर्वत से नहीं...ज़मीन पर हम दोनों बराबर हैं, दोस्त हैं...
जीत-हार
कुछ लोग करते हैं...कुछ लोग देखते हैं। कुछ होते हुए देखने वाले लोग कुछ करने वालों की तुलना में अपने आप को अधिक होशियार समझते हैं। एक दिन उन्हें पता चलता है कि जो मुस्कुराहट कुछ करने वालों के चेहरे पर है वो इन्हीं लोगों की मुट्ठी से फिसले समय ने लिखी है... एक वक्त तो ऐसा आता ही है जब खुद पर हंसने के लिए भी होठ नहीं खुल पाते...
ढ़ाई आखर...
अपनी धड़कनों पर मेरी उंगलियों के निशान देख कर तुम्हें समझ जाना चाहिए कि कैसे मैंने 1 से 100 तक की गिनती कैसे सीख ली होगी। तुम्हारी आंखों की प्रयोगशाला में शिफ्ट होते ही कयामत सी कांपती तुम्हारी जुबां की लड़ख़ड़ाहट ने मुझे ककहड़ा सिखाया। अब कितने सबूत... चाहिए तुम्हें अपने मनोहर पोथी होने के उलटने दो बारी-बारी से पन्नें कि पढ़ा जा सके ढ़ाई आखर...

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

प्रिय पंकज, तुम्हें लगातार पढ़ रहा हूं और तुम्हारी कुछ पंक्तियों को अपने अंदर तक उतारने में बहुत समय लगता है। तुम्हारी कुछ पंक्तियां गद्य की पीठ पर कविता और गज़ल के एक खूबसूरत चेहरे को जैसे पिरोकर साक्षात कर देती है। कितनी मुश्किल से तुम इन कुछ पंक्तियों के अर्थ सार्थक शब्द के धागे में पिरो पाते होगे? मुझे लगता है कि तुम भी किसी जिद्दी मूर्तिकार से कम नहीं हो। तुम्हारे अंदर का बच्चा मासूम है तो जिद्दी भी है जो शब्दों को सही अर्थ देने के लिए लड़ता रहता है। तुम में मैं एक प्रसिद्ध कलाविद्ध रचनाकार देख रहा हूं जो अपने समय से और परंपरा से अलग हटकर सोचता है। शुभकामनाएं एवं बधाई
प्रेम जनमेजय