- पंकज नारायणमेरे नए जन्म की तैयारियों में व्यस्त चल रहे समय का एक और दिन आज शाम को सूरज के साथ चला गया। कुछ बातों के नरम व्यवहार से कुछ अच्छा- सा लगा। महान कथक- नर्तक पंडित बिरजू महाराज के यहां नए साल का केक खा कर शाम की मुलायम तहों में एक अच्छी स्मृति सहेज कर रख दी। फोन पर कुछ मित्रों ने नए साल की शुभकामनाओं के साथ मेरे ख़यालों के लिए अपनी बातों में जगह बनाई। रात कहती है कि बेटा सो जाओ, नहीं तो विचार आ जाएगा।
पंकज नारायण
आईए बात करते हैं...
मंगलवार, 3 जनवरी 2012
आज के दिन को थोड़ा- सा अपने पास से गुज़र कर देखा
सोमवार, 2 जनवरी 2012
साल का दूसरा दिन भी मुझे साथ लिये बिना गया
साल का दूसरा दिन, साल के आख़िरी दिन से पीछे और साल के पहले दिन से आगे निकल जाता है। आज का दिन मुझे ऐसे छोड़ कर गया, जैसे मां-बाप अपने अपने छोटे बच्चे को घर की नौकरानी के पास रोता हुआ छोड़ कर चले जाते हैं। समय के साथ रहना भूल सा गया हूं और नये साल के पहले दिन से कोशिश है समय के साथ चलूं।समय के साथ चलने के मुहावरे सुन कर जब बोर होने लगा, तब समय ने ही खड़ा होना सिखाया। खड़ा होने पर जब कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था, तब पांवों में आंखों का जन्म हुआ और धरती ने चलना सिखाया। चलते हुए जब समझा कि मंज़िल दूर है, तब धरती को दूसरे छोर पर छूते आसमान ने उड़ना सिखाया।
हौसला समेट लिया है मैंने फिर से कि 'आज का कल', 'कल के आज' से बेहतर हो।
एक नए सफर के लिए.. एक नए कल के लिए..आज बस इतना ही।
2012 का पहला दिन साल के बाकी दिनों के लिए
हम मिल कर जलें, रोशनी के लिए |
रविवार, 1 जनवरी 2012
एक ऐसा साल जिसका कई सालों से इंतज़ार था मुझे
रात ने आज फिर तारीख़ बदली। पिछली तारीख़ों ने ख़ुद को मिटा कर एक साल खड़ा किया और वह भी मेरी आंखों के सामने अंतिम सांसें गिन रहा था... तारीखें मिटी, साल मिटे, सदियां मिटी... नहीं मिटी तो रात की तारीख़ बदलने की आदत... नहीं मिटी तो उस एक तारीख़ पर हमारे मिटने की आदत... नहीं मिटी तो ख़त्म होने के बाद शुरू होने की अदा..
सोमवार, 10 मई 2010
एक भटकता हुआ आत्म- चिंतन
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
हमारे भीतर पहिये का अविष्कार
जब दोनों पांव दलदल में हों तब एक हाथ उठा कर आसमान को गुरुत्वाकर्षण का नियम याद दिलाना चाहिए। धरती में नाक तक धंसने के बाद भी हमें बचा सकता है आसमान का एक टिमटिमाता तारा, जैसे बचा लेता है पूरी तरह से हार चुके आदमी को बचपन का एक सपना। दुनिया के आखिरी आदमी तक पहुंचने की ज़िद से हमारे भीतर पहिये का अविष्कार होता है।
फेसबुक पर हर दिन नया लिखने की आदत ने अब ब्लॉग पर भी लगातार आने का बहाना दे दिया है। जारी है पिछली पंक्तियों से आगे...
पहचानो मुझे
मैं उसी मोड़ से आई हूं, जहां किसी अज़नबी ने तुम्हारा हाथ थामा था। जब भी तुम खुले आसमान और फैली ज़मीन के बीच में अपनी यादों का ढ़क्कन खोल कर सुस्ताते हो, तब धीरे-धीरे उतरती हूं तुम्हारी तहों में संगीत बन कर। कभी-कभी पाई जाती हूं तुम्हारी डायरी के पन्नों में, नींद का इंतजा़र करती लाल आंखों या तेरे ख्वाबों के आखिरी एपिसोड में। अगर जानना चाहते हो कि ज़िंदगी रिश्ते में तुम्हारी क्या लगती है तो पहचानो मुझे..
प्रेम का दृश्य
घड़ी की तीनों सुइयां तुम्हारे आने से पहले तक कितनी सुस्त होती हैं। तुम्हारे आ जाने से लेकर तुम्हारे चले जाने तक घड़ी कितनी तेज़ चलती है। इस हांफते समय में हमारा एक जगह ठहर जाना बह्मांड में घटने वाली अनोखी घटना हो जाती है। ठीक उसी समय थोड़ी देर के लिए... तीनों सुइयां रूकती हैं और आसमान देखता है धरती पर एक सूरज और एक चांद को प्यार करते हुए...
ग़लत पते पर ज़िंदगी
आओ न उलझते हैं हवाओं से। रंगीन पानी में देखते हैं अपना चेहरा। अपनी नादानियों के खजाने से निकालते हैं छोटी-छोटी खुशियां। करते हैं इस्तेमाल चुप्पियों के तालों की चाभी का और चिपकाना शुरू करते हैं मुस्कुराहट के स्टीकर तमाम चेहरों पर। चलो एक बार फिर से ग़लत पते पर ज़िंदगी को ढूंढते हैं।
तोड़ा जाए बस्ती का कानून
बस्ती के कानून से ज्य़ादा पवित्र है खिड़कियों के पर्दों का सरकना। अच्छा लगा तुम्हारा समझ जाना कि प्यार वीकेंड का इत्मिनान नहीं, हर दिन की शुरूआत और रात का चांद है। तो चलो तपते सूरज की दुनिया में चांद-चांद खेलते हैं। आओ कि खिड़की की दबी जुबां को हौसला दिया जाए... तोड़ा जाए बस्ती का कानून। आओ कि किस्सों में समा जाएं।
रोशनी की आदतों के बारे में
पता नहीं मां को किसने बता दिया कि गांव के कई चिरागों की रोशनी पी कर शहर की एक स्ट्रीट लाइट जलती है। अपनी हथेलियों में मेरे गोल चेहरे को भर कर एकटक देखती मुस्कुरा उठती थी मां। उदास पलों में इस गोल कटोरे से उड़ेल लेती थी अपनी आंखों में भर पेट रोशनी। मां को शहर के सजने से कोई दिक्कत नहीं है, उसे बस इतना डर है कि मैं किसी स्ट्रीट लाइट की दो- चार घूंटों में न बदल जाऊं। मायें जानती हैं हमारी रोशनी की आदतों के बारे में।
बेरोज़गार बैठा कबूतर
टेलिफोन के टॉवर पर म मना रहा होगा कि इस ज़माने में भी कोई प्रेम पत्र लिखे। खुले पन्नों के आसमान में वह दो प्रेमियों की उड़ान के लिए अपना पंख फैला सके। ऑनलाइन चैटिंग की तीव्रता में भी सुनी जा सके उसकी गुटर गू। कबूतर अभी भी मानते हैं कि सच्चा प्यार कबूतरों को दाना खिलाता है..
शनिवार, 19 सितंबर 2009
विदर्भ के एक ज़िंदा किसान की प्रार्थना
सोमवार, 14 सितंबर 2009
पिन ड्रॉप साइलेंस में एक बूंद
इस तरह की चार-पांच लाइनों के साथ हर दिन फेस बुक पर आना। अपने दोस्तों की चार-पांच लाइनों को पढ़ना यह सब इन दिनों खूब चल रहा है। फेस बुक के कुछ मित्रों का कहना है कि ये लाइनें उन्हें सुकून देती हैं। सुकून शब्द प्रतिक्रियाओं में इतने मिले कि विश्वास ही नहीं हुआ कि अपनी बेचैनी का प्रतिबिंब टुकड़ों में बॅट कर इस तरह से सुकून भी बन सकता है। उनकी मुस्कुराती अच्छाइयों के प्रतिबिंब अपने भीतर समेटने की कोशिश में रोज इस तरह की चार लाइनें लिखना रुटीन में शामिल हो गया। ऐसा इसीलिए भी है कि कुछ दिनों से अपने भीतर एक ऐसे आदमी की तलाश में हूं जिसके आर-पार दिखाई दे सके। एक ऐसा आदमी जिसके पीछे खड़ा आदमी भी साफ-साफ दिखाई दे और जिसके आगे खड़ा आदमी भी उसको ढॅक न पाए। पिछले दिनों मोहल्ला लाइव के संपादक अविनाश जी ने फेस बुक पर ही मेल से संपर्क किया इन फेसबुकिया लाइनों को मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित करने के लिए। वहां से पंक्तियां उठा कर कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जी ने अपने मित्रों को अपनी टिप्पणी के साथ मेल किया। इस तरह से मोहल्ला लाइव पर, मेरे मेल पर और फोन पर मिली प्रतिक्रियाओं ने इन लाइनों के लिए मेरे भीतर एक सवाल दिया और उसके जवाब ने एक हौसला। मेरे सामने यह सवाल नहीं है कि ज्यादातर आत्म-केंद्रित इन पंक्तियों के बारे में आत्म-मुग्ध होकर सोचूं या आत्म-जयी होकर, कोशिश यह है कि जो भी सोचूं एक सवाल बन कर और जो भी मिले एक जवाब बन कर। मोहल्ला लाइव पर फेस बुक की जितनी पंक्तियां शामिल हुई उसके बाद लिखी गई पंक्तियों के साथ-
आंखों में थोड़ा सा पानी
रेगिस्तान का तपता संघर्ष उन्हें आंख नहीं दिखा सकता। उनकी नमी हमेशा बरकरार रहती है। असफलता की तेज़ धूप भी जब उन्हें सेकती है तो उनमें हरी-भरी फसल उगती है। वो ठंढे दिमाग से हौसलों को गरम करते हैं। बात उनलोगों की हो रही है जो पानी का सही इस्तेमाल जानते हैं और हर परिस्थिति में अपनी आंखों में थोड़ा सा पानी बचा कर रखते हैं...
झूठ का होना
जोर से बोलना और आवाज़ में ताकत होना दोनों दो बात है। ऐसा भी होता है जब किसी का छींकना भी राष्ट्रीय छीक बन जाता है। एक-दूसरे के गरम बयानों से निकल कर वो इतिहास बोलेंगे और हम यह मानकर सुनेंगे कि जिस तरह सच का होना सच है उसी तरह झूठ का होना भी सच हैं। बच्चे किताबों में गांधी को गांधी, अंबेडकर को अंबेडकर और जिन्ना को जिन्ना पढ़ने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करेंगे और बात करने की कोशिश करेंगे अपनी धीमी आवाज़ में...
ईश्वर क्यों
तुम्हारी एक आवाज़ से कई रास्ते निकलते हैं। एक रास्ते से कई लोग निकलते हैं। एक आदमी से कई दुनिया निकलती है। हे उस एक दुनिया के ईश्वर, तुम ख़ामोश क्यों हो...और जब खामोश हो तो ईश्वर क्यों हो...
उस मोड़ से शुरू करें...
कैद थी लड़की... जैसे कैद होती है गुब्बारे में हवा... गुब्बारा फट गया... लड़की हवा हो गई। हवा होने या अखबारों में नाम बदल कर आने से पहले और बाद की लड़कियों को एक फर्क के साथ जीना पड़ता है। आईए इस फर्क पर एक-एक मुट्ठी मिट्टी डाल दी जाए। ज़िंदगी वहीं से शुरू हो जहां से सुबह होती है...
मेरे कुछ सामान हैं तुम्हारे पास
तुम्हारी आंखों में मेरी जुबां, तुम्हारी धड़कनों पर मेरी उंगलियों के निशान, तुम्हारे ख्वाबों में मेरी मौजुदगी... ये कुछ सामान हैं मेरे, जो तुम्हारे पास पड़े हैं। हो सके तो लौटा दो... और हां तुमने मेरी किताब में जो मयूर- पंख छुपा रखे थे, वो कहीं खो गए हैं। देखो, हम बड़े हो गए और यह दुनिया छोटी है। धुल- मिट्टी लगे चेहरों को देखकर इसे प्यार नहीं आता। चेहरे पर एक अच्छा मेकअप पोत लो... मेरा सामान वापस करो और मुझे भूल जाओ..
शिक्षक दिवस पर
ज़िंदगी किताबों से पहले ज़िंदगी में ही आती हैं। शिक्षक दिवस पर उन सभी परिस्थितियों को मेरा प्रणाम जिन्होंने मुझे मेरा होना सिखाया। उन सभी शिक्षकों को प्रणाम जिन्होंने मुझे नहीं पढ़ाया और मैं अपने अनपढ़ होने का इस्तेमाल पढ़े- लिखे की तरह करना सीख गया।... अच्छा लगा किताबों से पहले ज़िंदगी में आना... वाह ज़िंदगी।
सिक्का उछलते ही
क्या बात है कि तुम्हारे हिस्से का सारा कानून हम पर लागू होता है... हम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं फिर भी सिक्का उछलते ही चित भी तुम्हारी और पट भी तुम्हारी कैसे हो जाती है... बताओ न दोस्त क्या अंतर है तुम्हारे होने और हमारे खोने में ...
ज़मीनी दोस्ती
दोस्त मैं भी चाहता हूं कि तुम सागर जितने उंचे और पर्वत जितने गहरे बनो ताकि तल में उतर कर तुम्हारी उंचाई और शिखर पर चढ़ कर तुम्हारी गहराई नाप सकूं... लेकिन इन दोनों के बीच में जो समतल ज़मीन है हमें उसी पर साथ-साथ चलना होगा... क्योंकि दोस्ती मैंने तुमसे की है, सागर या पर्वत से नहीं...ज़मीन पर हम दोनों बराबर हैं, दोस्त हैं...
जीत-हार
कुछ लोग करते हैं...कुछ लोग देखते हैं। कुछ होते हुए देखने वाले लोग कुछ करने वालों की तुलना में अपने आप को अधिक होशियार समझते हैं। एक दिन उन्हें पता चलता है कि जो मुस्कुराहट कुछ करने वालों के चेहरे पर है वो इन्हीं लोगों की मुट्ठी से फिसले समय ने लिखी है... एक वक्त तो ऐसा आता ही है जब खुद पर हंसने के लिए भी होठ नहीं खुल पाते...
ढ़ाई आखर...
अपनी धड़कनों पर मेरी उंगलियों के निशान देख कर तुम्हें समझ जाना चाहिए कि कैसे मैंने 1 से 100 तक की गिनती कैसे सीख ली होगी। तुम्हारी आंखों की प्रयोगशाला में शिफ्ट होते ही कयामत सी कांपती तुम्हारी जुबां की लड़ख़ड़ाहट ने मुझे ककहड़ा सिखाया। अब कितने सबूत... चाहिए तुम्हें अपने मनोहर पोथी होने के उलटने दो बारी-बारी से पन्नें कि पढ़ा जा सके ढ़ाई आखर...